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साहित्य, कला, संगीत ही देंगे जीने का सही रास्ता

- प्रख्यात साहित्यकार असगर वज़ाहत से 'एसबीटीÓ की विशेष बातचीत
श्रीगंगानगर। प्रख्यात साहित्यकार असगर वज़ाहत ने कहा है कि युवा पीढ़ी को साहित्य, कला और संगीत से अवश्य जुडऩा चाहिए, क्योंकि यहीं से उन्हें जीवन जीने का सही रास्ता मिलेगा। ताकत मिलेगी।
वे सोमवार को यहां 'एसबीटीÓ से विशेष बातचीत कर रहे थे। वे यहां नोजगे पब्लिक स्कूल में चल रहे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ श्रीगंगानगर में भाग लेनेे आए हैं। उन्होंने बातचीत में कहा कि युवा साहित्य, संगीत व कला को अपने पाठ्यक्रम का हिस्सा मानकर अपनाएं। क्योंकि वे चाहे पढ़ लिख कर डॉक्टर, इंजीनियर या कुछ भी और बन जाएं, विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए उन्हें ताकत साहित्य, कला और संगीत से ही मिलेगी। इनके बगैर मनुष्य का जीवन पूर्ण नहीं होता।
असगर वज़ाहत के बहुचर्चित नाटक 'जिन लाहौर नईं वेख्या ओ जम्या ई नींÓ पर फिल्म बन रही है। जब एसबीटी ने उनसे पूछा कि क्या आपको नहीं लगता कि इस पर फिल्म बनाने का ख्याल इंडस्ट्री को बहुत देर से आया है तो उनका जवाब था कि सत्यजीत रे को भी प्रेमचंद की कहानी पर फिल्म बनाने का ख्याल भी उनकी बहुत सारी फिल्मों के बाद आया था।
आज के इस दौर की फिल्मों में साहित्य की अहमियत क्या हैै, इस सवाल पर वे मुस्कुराते हुए कहते हैं-दरअसल फिल्म से साहित्य की दूरी है। साहित्य का कार्यक्षेत्र मुंबई नहीं होकर दिल्ली, इलाहाबाद, भोपाल, जयपुर इत्यादि है। इस वजह से फिल्म वालों का ध्यान कम जाता है। जब कोई कृति हिंदी से अनूदित होती है, तब फिल्म वालों को उस कृति की अहमियत पता चलती है। हमें इस पर भी काम करना चाहिए।
हिंसा, सेक्स के दौर में साहित्य कहां टिक पाएगा? इस प्रश्न पर असगर वजाहत का कहना है कि हिंसा, आतंक आदि के दौर में ही साहित्य की अहमियत पता चलेगी, क्योंकि इन समस्याओं का समाधान साहित्य ही सुझाएगा। इन बुराइयों को साहित्य ही दूर कर पाएगा। मनुष्यता को सार्थक करने का काम  साहित्य की करेगा। हिंसा और अपराध का जवाब राजनीति नहीं, साहित्य ही देगा।
क्या फिल्मी दुनिया में सत्यजीत रे और ऋषिकेश मुखर्जी का दौर फिर लौटेगा? इस पर आशाविन्त असगर वजाहत कहते हैं-इतिहास अपने को दोहराता है। एक समय आता है जब लोग एक चीज से ऊब जाते हैं तो दूसरी तरफ आकर्षित होते हैं।
अच्छी फिल्मों का दौर फिर आ रहा है। अब लोग सच लगने वाले जीवन की फिल्में पसंद करते हैं। वह समय गुजर गया जब लोग पहाड़ और बिल्डिंग उखाड़ कर फेंकने वाले नायक की फिल्म पसंद करते थे। अब तो लोग सचमुच जैसा जीवन है, वैसी कहानी और फिल्म पसंद करते हैं।
साहित्य बाजार का विरोधी है, लेकिन क्या लिटरेचर और फिल्म फेस्टिवल बाजार के ही रूप नहीं हैं? इस सवाल पर वे कहते हैं-अगर आयोजकों का उद्देश्य पैसा कमाना है तो बाजार है और अगर संस्कृति, कला को प्रोत्साहन देना है तो ठीक है। वैसे मुझे लगता नहीं कि ऐसे आयोजनों से कमाई हो पाती होगी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जिक्र करने पर वे कहते हैं- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। ललित कलाएं, साहित्य और संगीत ही आजादी के मूलतत्व हैं। अगर किसी की विचारधारा दूसरी है तो उसे संवाद को महत्व देना चाहिए, हिंसा को नहीं। टीचर भी प्यार से पढ़ाता है तो बात समझ आती है, पिटाई से बच्चा नहीं समझता।

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