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लोकसभा चुनाव मेंं कम या अधिक मतदान का फायदा किसे?

- वोटिंग के हर चरण के बाद लोग लगा रहे अनुमान
- राजस्थान मेंं तेरह सीटों पर रिकॉर्ड तोड़ मतदान बीजेपी को डुबोएगा या तैराएगा
श्रीगंगानगर। लोकसभा चुनाव में मतदान का एक और चरण सोमवार को संपन्न हो गया। इस चरण में देश के नौ राज्यों में 71 सीटों पर 62 फीसदी मतदान हुआ है। अकेले राजस्थान मेंं भले ही तेरह सीटों पर मतदान प्रतिशत बढ़ा है लेकिन नौ राज्यों में यह मतदान 2014 के मुकाबले 2.64 फीसदी कम है। इससे पहले के चरणों में हुए मतदान में वोट प्रतिशत कम रहा है। अब मतदान कम हो रहा है तो इसके क्या संकेत हैं, कम मतदान का फायदा किस पार्टी को होगा और नुकसान किसे झेलना पड़ेगा, 29 अप्रेल को राजस्थान की तेरह सीटों पर जबरदस्त मतदान के आखिर क्या मायने हैं, लोग इस पर व्यापक चर्चा कर रहे हैं क्योंकि वर्तमान में इन सभी सीटों पर भाजपा का कब्जा है।
लोकसभा चुनावों के लिए तीन चरणों का मतदान हो चुका है। चुनाव आयोग के अनुसार 11 अप्रैल को पहले चरण में 69.45 प्रतिशत मतदान हुआ और 18 अप्रैल के दूसरे चरण में भी यह 69.43 प्रतिशत ही रह पाया जो 2014 के 69.62 प्रतिशत मतदान से कम है। काफी लोग देश की परिस्थितियों के लिहाज से इस आंकड़े को संतोषजनक मान रहे हैं और इसके लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पीठ थपथपा रहे हैं। लगभग सभी राजनीतिक दल मतदान के इस प्रतिशत की व्याख्या अपने-अपने पक्ष में कर रहे हैं।
मतदान का इतना प्रतिशत जिनके पक्ष में नहीं हैं वे भी चुनाव के बीचों-बीच कोई भी स्वीकारोक्ति करके अगले चरणों के लिए अपनी मुश्किलें नहीं बढ़ाना चाह रहे हैं और गोलमोल दलीलों के सहारे मतदान के आखिरी दौर तक भ्रम की स्थिति बनाए रखना चाह रहे हैं।
वैसेगुप्त मतदान की व्यवस्था के चलते ठीक से कहां पता चल पाता है कि कम मतदान से किसे लाभ हुआ और ज्यादा से किसे फायदा। लेकिन राजनीतिक समीक्षक बहस के इस ऊंट को किसी एक तरफ बैठाने की कोशिश जरूर करते रहेंगे और आखिरकार इसमें कुछ हद तक कामयाब भी होते दिखेंगे, लेकिन इस कोलाहल में हमें इक्कीसवीं सदी के भारतीय मतदाता की राजनीतिक सूझबूझ को कम नहीं आंकना चाहिए जिसके मन की थाह लेना आसान नहीं रह गया है। वह बखूबी जानता है कि किसे क्या और कितना बताना है?
इसके बावजूद चुनावों के बीच जब वोटिंग हो रही होती है तब वोटिंग प्रतिशत को देखकर संभावित विजेता का अनुमान लगाना लोगों का बेहतरीन शगल है। 11 अप्रैल को पहले चरण में जिन 91 लोकसभा सीटों पर वोटिंग हुई, उसमें 2014 में इनमें से 32 सीटें भाजपा ने जीती थीं. पश्चिम यूपी की जिन 8 सीटों पर मतदान हुआ, ये सभी सीटें भाजपा के पास थीं. उत्तराखंड की सभी 5, महाराष्ट्र की 7 में से 5, असम की 5 से 4, बिहार की 4 में 3 सीटें भाजपा ने जीती थी लेकिन इस बार बिहार में इन चार सीटों में से महज एक सीट पर भाजपा चुनावी मैदान में है। बाकी तीन सीटों पर सहयोगी मैदान में हैं।
चुनावी राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले लोग उन राज्यों को केन्द्र में रखकर कर रहे हैं, जहां भाजपा मैदान में है क्योंकि सिर्फ भाजपा की जीत और हार से ही केंद्र सरकार का भविष्य तय होना है। उत्तराखंड की पांच सीटों पर 57.85 फीसदी मतदान हुआ जबकि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान 2014 में सूबे में 62.15 फीसदी मतदान हुआ था।
जिस उत्तर प्रदेश पर सबकी निगाहें टिकी हैं, वहां 63.69 प्रतिशत वोटिंग हुई है। 2014 के मुकाबले सहारनपुर में करीब 4 फीसदी, कैराना में करीब 9 फीसदी, मुजफ्फरनगर में करीब 3 फीसदी, बागपत में करीब 3 फीसदी कम मतदान हुआ है. मेरठ के मतदान प्रतिशत में अंतर नहीं आया और बिजनौर में पिछले चुनाव की तुलना में अधिक वोटिंग हुई है।
छत्तीसगढ़ की बस्तर सीट पर 56 प्रतिशत मतदान हुआ। पिछले चुनाव में इस सीट पर 69.39 प्रतिशत मतदान हुआ था। बिहार की 4 सीटों पर पिछली बार से औसतन डेढ़ फीसदी कम वोटिंग हुई है।
 सवाल यह है कि क्या ज़्यादा या अधिक वोटिंग के आधार पर कुछ सियासी संकेत पकड़े जा सकते हैं? सवाल यह है कि क्या ज्यादा वोट पडऩे से किसी ख़ास पार्टी को अन्य पार्टियों के मुकाबले ज़्यादा फ़ायदा मिल सकता है? 
कुछ निष्कर्ष मोदी समर्थकों को खुश करने वाले
कुछ विश्लेषक इन प्रश्रों के उत्तर में ऐसे निष्कर्ष निकालते हैं जो मोदी समर्थकों को खुश करने वाले हैं। पिछले तीन लोकसभा चुनावों यानी 2004, 2009 और 2014 के लोक सभा चुनावों के नतीजों पर गौर करें तो आम ट्रेंड सामने आता है। पिछले तीनों चुनावों में भाजपा ने उन सभी सीटों पर बेहतर प्रदर्शन किया जिनमें वोटिंग कम हुई। साल 2004 और 2009 के चुनावों में सबसे ज़्यादा चौंकाने वाले नतीजे शायद यही रहे कि जिन सीटों पर मतदान अधिक हुआ वहां भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था, जबकि जिन सीटों पर कम वोट पड़े वहां भाजपा ने कांग्रेस पर बढ़त दर्ज़ की।
आंकड़े साबित करते हैं कि 2014 में जिन सीटों पर कम वोटिंग हुई थी वैसी करीबन 23 फीसदी सीटों पर भाजपा ने कांग्रेस को पछाड़ दिया. 2009 में यह करीब 3.6 फीसदी और 2004 में करीब 5 फीसदी सीटें थीं.
कम मतदान से भाजपा को फायदा तो
राजस्थान में रिकॉर्ड वोटिंग खतरा?
कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि ग्रामीण सीटों पर भी कम वोट पडऩे की स्थिति में भाजपा कांग्रेस पर बढ़त बना लेती है। ज़्यादातर चुनावों में भाजपा और आरएसएस यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि उनके अधिकतर समर्थक वोट डालें. जबकि दूसरी तरफ़ जो पार्टियां कैडर आधारित नहीं हैं, उनके पास अपने समर्थकों को पोलिंग बूथ तक लाने के लिए मज़बूत ढांचा नहीं होता, जिसके कारण ये पार्टियां बहुत ही कम समर्थकों को बूथ तक ला पाने में सफल हो पाती हैं।
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि पहले दौर पर कम वोटिंग, खासकर जहां 60 फीसदी से कम मतदान हुआ है, वहां के भाजपा समर्थकों को उम्मीद रखनी चाहिए कि कोई सत्ताविरोधी रुझान नहीं है लेकिन राजस्थान में प्रथम चरण के मतदान मेें तेरह सीटों पर 67.2 फीसदी मतदान करके वोटरों ने 67 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है, क्या यह भाजपा के लिए खतरे का संकेत है?


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